हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह पर एक निर्णायक कदम उठाते हुए एक नई गाइडलाइन जारी की है। इस फैसले में कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि बाल विवाह रोकथाम अधिनियम को किसी भी व्यक्तिगत कानून या परंपरा के तहत बाधित नहीं किया जा सकता है। यह न केवल एक कानूनी आदेश है, बल्कि यह समाज में एक सकारात्मक बदलाव की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण संकेत है।
अधिकारों का संरक्षण: जीवनसाथी चुनने का अधिकार
कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे, ने इस बात पर जोर दिया कि बाल विवाह न केवल एक कानूनी मुद्दा है, बल्कि यह नाबालिगों के जीवन साथी चुनने के अधिकार का उल्लंघन है। कोर्ट ने कहा कि माता-पिता द्वारा अपनी नाबालिग संतानों की शादी के लिए सगाई करना, उनके इस मौलिक अधिकार का हनन है।
जागरूकता और शिक्षा
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया है कि बाल विवाह रोकने के लिए केवल दंड के प्रावधानों पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं होगा। इसके लिए जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। कोर्ट ने कहा, “हमें इस दिशा में सही और प्रभावी रणनीति बनाने की जरूरत है, जिसमें विभिन्न समुदायों के संदर्भ में विशेष उपाय किए जाएं।” दंडात्मक उपायों के बजाय, CJI चंद्रचूड़ ने समाज में जागरूकता बढ़ाने और नाबालिगों की सुरक्षा पर जोर दिया।
प्रशिक्षण और जागरूकता का महत्व
इस गाइडलाइन के अंतर्गत, सभी संबंधित विभागों के लोगों को विशेष प्रशिक्षण देने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। साथ ही, यह भी बताया गया कि बाल विवाह रोकने के लिए, अधिकारियों को नाबालिगों की सुरक्षा और जागरूकता के लिए केंद्रित प्रयास करने चाहिए। कोर्ट ने कहा कि समाज की वास्तविकताओं को समझे बिना बनाई गई योजनाएं सफल नहीं होंगी।
समाजशास्त्रीय विश्लेषण
CJI चंद्रचूड़ ने कहा, “दंड और अभियोजन के बजाय निषेध और रोकथाम पर जोर दिया जाना चाहिए।” उन्होंने यह भी बताया कि समाज में शिक्षा की कमी और गरीबी से ग्रस्त लड़कियों के लिए काउंसलिंग करने की आवश्यकता है। यह दृष्टिकोण न केवल कानूनी प्रावधानों को सही दिशा में ले जाएगा, बल्कि समाज के वंचित वर्गों को भी सशक्त बनाएगा।